पपीता की खेती देश के अधिकतर हिस्सों में की जाती है। ये एक जल्दी तैयार होने वाली फसल है, साथ ही पपीता की खेती का एक फ़ायदा यह भी है कि इसे एक बार लगाने से पौधे में दो बार फल लगते हैं।
इसके अलावा पपीते के खेत में बची खाली जगह पर कोई अन्य फसल भी बोई जा सकती है। अगर वैज्ञानिक तरीके से पपीते की खेती की जाए तो इससे अच्छी कमाई हो सकती है।
1. फल उत्पादन हेतु – ताइवान , रेड लेडी -786, हानिड्यू (मधु बिंदु) , कुर्ग हनिड्यू , वाशिंगटन , कोयंबटूर -1 , CO. -3 , CO. -4, CO. – 6 , पंजाब स्वीट , पूसा डिलीशियस ,पूसा जाइंट , पूसा ड्वार्फ, पूसा नन्हा, सूर्या, पंत पपीता आदि ।
2. पपेन उत्पादक किस्मे – पूसा मैजेस्टी , CO. -5, CO. -2 आदि ।
3. उभयलिंगी किस्में – पूसा डिलीशियस, पूसा मैजेस्टी, सूर्या, रेड लेडी, कुर्ग हनिड्यू आदि।
4. गमलों में लगाने हेतु – पूसा नन्हा, पूसा ड्वार्फ आदि ।
पपीता की लोकप्रिय किस्में
रेड लेडी – यह अत्यधिक लोकप्रिय किस्म है फल का वजन 1.5 – 2 कि. ग्रा. यह अत्यधिक स्वदिष्ट होती है, इसमें 13 % सर्करा पायी जाती यह रिंग स्पॉट वायरस के प्रति सहनशील है।
पूसा मैजेस्टी – यह किस्म पपेन देने वाली यह सूत्रकृमि के प्रति सहनशील है।
पूसा डेलिशियस- यह पपीता की एक गाइनोडायोशियस किस्म है| इसके पौधे मध्यम ऊँचाई और अच्छी उपज देने वाले होते हैं| यह एक अच्छे स्वाद, सुगन्ध एवं गहरे नारंगी रंग का फल देने वाली किस्म है| जिसकी औसत उपज 58 से 61 किलोग्राम प्रति पौधा तक होती है|
इसमें कुल घुलनशील ठोस 10 से 12 ब्रिक्स होता है| इस किस्म के फल का औसत वजन 1.0 से 2.0 किलोग्राम होता है| पौधों में फल जमीन की सतह से 70 से 80 सेंटीमीटर की ऊँचाई से लगना प्रारम्भ कर देते हैं| पौधे लगाने के 260 से 290 दिनों बाद इस किस्म में फल लगना प्रारम्भ हो जाते है|
पूसा ड्वार्फ- यह पपीता की डायोशियस किस्म है| इसके पौधे छोटे होते हैं और फल का उत्पादन अधिक देते है| फल अण्डाकार 1.0 से 2.0 किलोग्राम औसत वजन के होते हैं| पौधे में फल ज़मीन की सतह से 25 से 30 सेंटीमीटर ऊपर से लगना प्रारम्भ हो जाते हैं| सघन बागवानी के लिए यह प्रजाति अत्यन्त उपयुक्त है| इसकी पैदावार 40 से 50 किलोग्राम प्रति पौधा हैं| फल के पकने पर गूदे का रंग पीला होता है|
पूसा जायन्ट- इस पपीता किस्म का पौधा मजबूत, अच्छी बढ़वार वाला और तेज हवा सहने की क्षमता रखता है| यह भी एक डायोशियस किस्म है| फल बड़े आकार के 2.5 से 3.0 किलोग्राम औसत वजन के होते हैं, जो कैनिंग उद्योग के लिए उपयुक्त हैं| प्रति पौधा औसत उपज 30 से 35 किलोग्राम तक होती है| यह किस्म पेठा और सब्जी बनाने के लिये भी काफी उपयुक्त है
पूसा नन्हा- यह पपीता की एक अत्यन्त बौनी किस्म है| जिसमें 15 से 20 सेंटीमीटर ज़मीन की सतह से ऊपर फल लगना प्रारम्भ हो जाते है| गृह वाटिका व गमलों में छत पर भी यह पौधा लगाया जा सकता है| यह डायोशियस प्रकार की किस्स है, जो 3 वर्षों तक फल दे सकती है| इसमें कुल घुलनशील ठोस 10 से 12 ब्रिक्स होता है| इस किस्म से प्रति पौधा 25 किलोग्राम फल प्राप्त होता है|
अर्का सूर्या- यह पपीता की गाइनोडायोशियस किस्म है| जिसका औसत वजन 500 से 700 ग्राम तक होता है| इसमें कुल घुलनशील ठोस 10 से 12 ब्रिक्स तक होता है| यह सोलो और पिंक फ्लेश स्वीट द्वारा विकसित संकर किस्म है| इस किस्म की प्रति पौधा औसत पैदावार 55 से 56 किलोग्राम तक होती है और फल की भंडारण क्षमता भी अच्छी हैं|
पपीता की बुबाई:-
- पपीते का व्यवसाय उत्पादन बीजों द्वारा किया जाता है। इसके सफल उत्पादन के लिए यह जरूरी है कि बीज अच्छी क्वालिटी का हो। बीज के मामले में निम्न बातों पर ध्यान देना चाहिए :
- बीज बोने का समय जुलाई से सितम्बर और फरवरी-मार्च होता है।
- बीज अच्छी किस्म के अच्छे व स्वस्थ फलों से लेने चाहिए। चूंकि यह नई किस्म संकर प्रजाति की है, लिहाजा हर बार इसका नया बीज ही बोना चाहिए।
- बीजों को क्यारियों, लकड़ी के बक्सों, मिट्टी के गमलों व पोलीथीन की थैलियों में बोया जा सकता है।
- क्यारियाँ जमीन की सतह से 15 सेंटीमीटर ऊंची व 1 मीटर चौड़ी होनी चाहिए।
- क्यारियों में गोबर की खाद, कंपोस्ट या वर्मी कंपोस्ट काफी मात्रा में मिलाना चाहिए। पौधे को पद विगलन रोग से बचाने के लिए क्यारियों को फार्मलीन के 1:40 के घोल से उपचारित कर लेना चाहिए और बीजों को 0.1 फीसदी कॉपर आक्सीक्लोराइड के घोल से उपचारित करके बोना चाहिए।
- जब पौधे 8-10 सेंटीमीटर लंबे हो जाएँ, तो उन्हें क्यारी से पौलीथीन में स्थानांतरित कर देते हैं।
- जब पौधे 15 सेंटीमीटर ऊँचे हो जाएँ, तब 0.3 फीसदी फफूंदीनाशक घोल का छिड़काव कर देना चाहिए।
बीज एवम् बीजोपचार :-
एक हैक्टर क्षेत्रफल के लिए 500 -600 ग्राम बीज की आवश्यकता होती है। बोने से पूर्व बीज को 3 ग्राम केप्टान प्रति की. ग्रा. बीज के हिसाब से उपचारित कर लेना चाहिए।
पौध रोपण :- 45 X 45 X 45 सेमी . आकर के गड्ढ़े 1.5 X 1.5 या 2 X 2 मीटर की दुरी पर तैयार करें। प्रति गडढे में 10 की.ग्रा. सड़ी हुयी गोबर की खाद , 500 ग्राम जिप्सम , 50 ग्राम क्यूनालफास 1.5 % चूर्ण भर देना चाहिए।
प्लास्टिक थैलियों में बीज रोपण:-
इसके लिए 200 गेज और 20 x 15 सेमी आकर की थैलियों की जरुरत होती है ।
जिनको किसी कील से नीचे और साइड में छेड़ कर देते हैं तथा 1:1:1:1 पत्ती की खाद, रेट, गोबर और मिट्टी का मिश्रण बनाकर थैलियों में भर देते हैं ।
प्रत्येक थैली में दो या तीन बीज बो देते हैं। उचित ऊँचाई होने पर पौधों को खेत में प्रतिरोपण कर देते हैं ।
प्रतिरोपण करते समय थाली के नीचे का भाग फाड़ देना चाहिए।
सिंचाई :- पौधा लगाने के तुरन्त बाद सिंचाई करे ध्यान रहे पौधे के तने के पास पानी नही भरे। गर्मियों में 5-7 दिन के अंतराल पर एवम् सर्दियो में 10 दिन के अंतराल पर सिंचाई करें ।
तुडाई एवम् उपज :-
पौधे लगाने के 10 से 13 माह बाद फल तोडने लायक हो जाते है। फलों का रंग गहरा हरे रंग से बदलकर हल्का पीला होने लगता है तथा फलों पर नाखुन लगने से दूध की जगह पानी तथा तरल निकलता हो तो समझना चाहिए कि फल पक गया है ।
एक पौधे से औसतन 150 – 200 ग्राम पपेन प्राप्त हो जाती है प्रति पौधा 40 -70 किलो पति पौधा उपज प्राप्त हो जाती है।
पपीते में लगने वाले किट, बीमारी एवं रोकथाम:-
प्रमुख रूप से किसी कीड़े से नुकसान नहीं होता है परन्तु वायरस, रोग फैलाने में सहायक होते हैं। इसमें निम्न रोग लगते हैं-
1. तने तथा जड़ के गलने से बीमारी:- इसमें भूमि के तल के पास तने का ऊपरी छिलका पीला होकर गलने लगता है और जड़ भी गलने लगती है। पत्तियाँ सुख जाती हैं और पौधा मर जाता है। इसके उपचार के लिए जल निकास में सुधार और ग्रसित पौधों को तुंरत उखाड़कर फेंक देना चाहिए। पौधों पर एक प्रतिशत बोर्डेक्स मिश्रण या कॉपर आक्सीक्लोराइड को 2 ग्राम प्रति लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करने से काफ़ी रोकथाम होती है।
2. डेम्पिगऑफ:- इसमें नर्सरी में ही छोटे पौधे नीचे से गलकर मर जाते हैं। इससे बचने के लिए बीज बोने से पहले सेरेसान एग्रोसन जी.एन. से उपचारित करना चाहिए तथा सीड बेड को 2.5 % फार्मेल्डिहाइड घोल से उपचारित करना चाहिए।
3. मौजेक (पत्तियों का मुड़ना) : इससे प्रभावित पत्तियों का रंग पीला हो जाता है व डंठल छोटा और आकर में सिकुड़ जाता है। इसके लिए 250 मि. ली. इमिडकलोरपीड 17.5 एस एल को 4 मिलीलीटर प्रति 15 ली. पानी के हिसाब से छिड़काव करें या एसिफेट 250 लीटर पानी में घोलकर स्प्रे करना काफ़ी फायदेमंद होता है।
4. चैंपा : इस कीट के बच्चे व जवान दोनों पौधे के तमाम हिस्सों का रस चूसते हैं और विषाणु रोग फैलाते हैं।
इसकी रोकथाम के लिए डायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर पानी में घोल कर छिड़काव करें।
5. लाल मकड़ी : इस कीट का हमला पत्तियों व फलों की सतहों पर होता है। इसके प्रकोप के कारण पत्तियाँ पीली पड़ जाती है और बाद में लाल भूरे रंग की हो जाती है। इसकी रोकथाम के लिए थायमेथोएट 30 ईसी 1.5 मिलीलीटर को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
6. पद विगलन : यह रोग पीथियम फ्रयूजेरियम नामक फफूंदी के कारण होता है। रोगी पौधें की बढ़वार रूक जाती है। पत्तियाँ पीली पड़ जाती हैं और पौध सड़कर गिर जाता है। इसकी रोकथाम के लिए रोग वाले हिस्से को खुरचकर उस पर कार्बेंदाजीम 2 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें।
7. श्याम वर्ण: इस रोग का असर पत्तियों व फलों पर होता है, जिससे इनकी वृद्धि रूक जाती है। इससे फलों के ऊपर भूरे रंग के धब्बे पड़ जाते हैं। इसकी रोकथाम के लिए ब्लाईटाक्स 2 ग्राम को 1 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करना चाहिए।
ऐसे समझे इसका लाभ:-
पपीते की पौधे से पौधे और पंक्ति से पंक्ति की दूरी 1.5 X 1.5 या 2 X 2 मीटर रखते है,
एक हैक्टेयर में 10,000 वर्ग मीटर होते है
एक बीघा में 2,500 वर्ग मीटर होते है तो एक बीघा में कितने पौधे लगेंगे
कुल क्षेत्रफल मीटर में
= ———————————————–
पौधे से पौधे की दूरी मीटर में X पंक्ति से पंक्ति की दूरी मीटर में
2500
= —————- = 625 पौधे लगेंगें
2 X 2
2500
= ————— = 1,111 पौधे लगते है।
1.5 X 1.5
अब एक पौधे पर #औषतन 40-50 किलो फल लगते है अब आप सोचो यदि 625 X 50 = 31,250 किलो / बीघा
1,111 X 50 = 55,550 किलो / बीघा
यदि सामान्य दर थोक की 7-8 रुपये किलो रहे तो
31,250 X 8 = 2,50,000 रुपये
55,550 X 8 = 4,44,400 रुपये
इसमें कुल खर्च एक बीघा में औषतन 50 -70 हजार रुपये अधिकतम होता है इससे अधिक नही होता,
2 X 2 मीटर की दूरी पर पौधे लगाने पर
2,50,000 – 70,000 = 1,80,000
शुद्ध आय यदि और भी कोई समस्या आ जाये या रेट कम मील तब भी हमे 1,50,000 रुपये का लाभ मिल जाता है जो कोई भी #परम्परागत फसल नही दे सकती।
1.5 X 1.5 मीटर की दूरी पर पौधे लगाने पर थोड़ी सघनता बढ़ जाती है और देखरेख अधिक करनी पड़ती है = 4,44,400 – 70,000 = 3, 34, 400
शुद्ध आय यदि और भी कोई समस्या आ जाये या रेट कम मील तब भी हमे 3,00,000 रुपये का लाभ मिल जाता है जो कोई भी #परम्परागत फसल नही दे सकती।
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