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कैसे करें दाल के लिए पीले मटर की खेती ?

कैसे करें दाल के लिए पीले मटर की खेती
Written by Gramik

पीले मटर की खेती सब्जी और दाल के लिए की जाती है। मटर दाल की आवश्यकता की पूर्ति के लिए पीले मटर का उत्पादन करना अति महत्वपूर्ण है, जिसका प्रयोग दाल एवं बेसन के रूप में अधिक किया जाता है। पीले मटर की खेती वर्षा आधारित क्षेत्र में अधिक लाभप्रद है। इसकी प्रमुख किस्में जैसे जय – KPMR 522, पंत मटर 42, KFP -103, अमन IPF5-19 की बिजाई कर सकते हैं।

फसल स्तर

मटर विश्व में बीन व चने के बाद तीसरी मुख्य दलहन फसल है और भारत में रबी दलहन में चना व मसुर के बाद तीसरी मुख्य फसल है। क्षेत्रफल में भारत विश्व में चौथे स्थान (10.53%) व उत्पादन में पाँचवें (6.96%) स्थान पर आता है।

12वीं पंचवर्षीय योजना (2012-2015) में मटर का कुल क्षेत्रफल 11.50 लाख हैं और उत्पादन लगभग 10.36 लाख टन है। उत्तर प्रदेश मुख्य मटर की खेती करने वाला राज्य है। यह अकेला लगभग 49 प्रतिशत भागीदारी मूल उत्पादन में रखता है। उतर प्रदेश के अतिरिक्त मध्य प्रदेश, बिहार व महाराष्ट्र राज्य मुख्य मटर उत्पादक राज्य हैं।

पीले मटर की खेती

उपज अन्तर

सामान्यत: यह देखा गया है कि अग्रिम पंक्ति प्रदर्शन की पैदावार व स्थानीय किस्मों की उपज में लगभग 24 प्रतिशत का अन्तर है। यह अन्तर कम करने के लिये अनुसंधान संस्थानों व कृषि विज्ञान केन्द्र की अनुशंसा के अनुसार उन्नत कृषि तकनीक को अपनाना चाहिए।

भूमि का चुनाव

मटर की खेती सभी प्रकार की भूमियों में की जा सकती है परंतु अधिक उत्पादन हेतु दोमट और बलुई भूमि जिसका पी.एच.मान 6-7.5 हो तो अधिक उपयुक्त होता है।

भूमि की तैयारी

खरीफ फसल की कटाई के पश्चात एक गहरी जुताई कर उसके बाद दो जुताई कल्टीवेटर या रोटावेटर से कर खेत को पाटा चलाकर समतल और भुरभुरा तैयार कर लें। दीमक, तना मक्खी एवं लीफ माइनर की समस्या होने पर अंतिम जुताई के समय फोरेट 10जी 10-12 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर खेत में मिलाकर बुवाई करें।

बुआई समय: 15 अक्तूबर से 15 नवंबर

बीज मात्रा: ऊंचाई वाली किस्म – 28 -30 किलोग्राम प्रति एकड़

बौनी किस्में: 40 किलोग्राम प्रति एकड़

बुआई की विधि: बुवाई कतार में हल, सीडड्रिल, सीड कम फर्टीड्रिल से करें।

बोने की गहराई: 4 से 5 सेंटीमीटर, कतार से कतार एवं पौधों से पौधों की दूरी: ऊंचाई वाली किस्म 30-45 सेंटीमीटर

बौनी किस्म: 22.5-10 सेंटीमीटर

बीजोपचार

बीज जनित रोगों से बचाव हेतु फफूंदनाशक दवा थायरम+कार्बेन्डाजिम 3 ग्राम प्रति किलोग्राम बीज और रस चूसक कीटों से बचाव हेतु थायोमिथाक्साम 3 ग्राम प्रति किलो ग्राम बीज दर से उपचार करें। उसके बाद वायुमण्डलीय नत्रजन के स्थिरीकरण के लिये राइजोबियम लेग्यूमीनोसोरम और भूमि में अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील अवस्था में परिवर्तन करने हेतु पी.एस.बी. कल्चर 5-10 किलोग्राम बीज की दर से उपचार करें। जैव उर्वरकों को 50 ग्राम गुड़ को आधा लीटर पानी में गुनगुना कर ठंडा कर मिलाकर बीज उपचारित करें।

उर्वरक प्रबंधन

ऊँचाई वाली किस्मों के लिए नत्रजन की मात्रा 20-30 किलोग्राम/ हैक्टेयर व बोनी किस्मों के लिए 40 किलोग्राम नत्रजन/ हैक्टेयर आधार उर्वरक के रूप में दें। फास्फोरस व पोटाश की मात्रा को भी आधार उर्वरक के रूप में मृदा परीक्षण के आधार पर दें। अगर मृदा में फास्फोरस व पोटाश की कमी हो तो ऊंचाई वाली किस्मों के लिए 40 कि.ग्रा./हे. फास्फोरस व बोनी किस्मों के लिए 12 किलोग्राम प्रति एकड़ फास्फोरस दें तथा पोटाश की मात्रा 12-15 किलोग्राम.व सल्फर 8 किलोग्राम प्रति एकड़ की दर से दें। सभी उर्वरकों के मिश्रण को कतार से 4-5 सेंटीमीटर दूरी पर व बीज से नीचे दें। जिन मृदाओं में जिंक की कमी हो उन मृदाओं में 6.25 किलोग्राम जिंक सल्फेट प्रति एकड़ दें।

सिंचाई

मृदा में उपलब्ध नमी व शरद कालीन वर्षा के आधार पर फसल को 1-2 सिंचाई की आवश्यकता प्रारंभिक अवस्था में होती है। प्रथम सिंचाई 45 दिन पर व दूसरी सिंचाई अगर आवश्यक हो तो फली भरते समय पर करें।

कटाई एवं गहाई

मटर की कटाई का कार्य फसल की परिपक्वता के पश्चात् करें। जब बीज में 15 प्रतिशत तक नमी रहे उस स्थिति में गहाई कार्य करें।

खेती से संबंधित और भी ब्लॉग पढ़ने के लिए किसान साथी ग्रामिक दिये गये लिंक पर क्लिक करें –
Pea Farming

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