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जैतून, जिसे ‘ओलिव’ के नाम से भी जाना जाता है, एक ऐसा फल है, जिसका उपयोग खाद्य और औषधीय उद्देश्यों के लिए लंबे समय से किया जा रहा है। आज के समय में जैतून की खेती आर्थिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह पर्यावरण के लिए भी लाभकारी है।
आज के इस ब्लॉग में हम जैतून की खेती की विधि, उपयुक्त मिट्टी और जलवायु, खेती का सही समय, सिंचाई और उर्वरक प्रबंधन, प्रमुख रोग व कीटों की रोकथाम के उपाय, और जैतून के उपयोग व लाभ पर विस्तार से चर्चा करेंगे।
जैतून की खेती की विधि
जैतून की खेती के लिए सबसे पहले खेत को अच्छी तरह से तैयार करना ज़रूरी है। इसके लिए मिट्टी की गहरी जुताई करें ताकि जैतून के पौधों की जड़ें अच्छी तरह से विकसित हो सकें। जैतून की पौध का चयन करते समय ध्यान रखें कि वो किस्म स्थानीय जलवायु के अनुकूल हो। पौधों को 5-7 मीटर की दूरी पर लगाएं ताकि उन्हें विकास करने के लिए पर्याप्त जगह मिल सके।
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उपयुक्त मिट्टी व जलवायु
जैतून की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। पथरीली और बलुई मिट्टी भी अनुकूल होती है बशर्ते उसमें जल निकासी की उचित व्यवस्था हो। जैतून के पेड़ के लिए शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु अच्छी मानी जाती है।
तापमान की बात करें तो गर्मियों में तापमान 20-30 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में 5-15 डिग्री सेल्सियस के बीच होना चाहिए। ध्यान रहे कि अधिक ठंड या जलभराव से इनका बचाव ज़रूरी है, क्योंकि ये पौधे के विकास को प्रभावित कर सकते हैं।
खेती का सही समय
जैतून की खेती के लिए अक्टूबर से दिसंबर के बीच का समय सबसे उपयुक्त होता है। इस समय मिट्टी में नमी की पर्याप्त मात्रा होती है जो पौधों की प्रारंभिक वृद्धि के लिए महत्वपूर्ण है। जैतून की फसल को फल देने के लिए तैयार होने में आमतौर पर 5 साल का समय लगता है। हालांकि ये किस्मों के चुनाव पर भी निर्भर करता है।
सिंचाई व उर्वरक
जैतून के पौधों को शुरुआती वर्षों में नियमित सिंचाई की आवश्यकता होती है। गर्मियों में हर 10-15 दिन में सिंचाई करें और सर्दियों में 20-25 दिन में एक बार। पौधों की बढ़ती उम्र के साथ सिंचाई कम की जा सकती है।
वहीं उर्वरक की बात करें तो इन पौधों में जैविक उर्वरकों का प्रयोग करना सबसे अच्छा है। इसके लिए प्रति पौधा सालाना 10-15 किलोग्राम गोबर की खाद और 100-150 ग्राम नाइट्रोजन, फास्फोरस और पोटाश के मिश्रण का प्रयोग किया जा सकता है।
प्रमुख रोग-कीट व उनकी रोकथाम
जैतून के पौधों पर कई प्रकार के रोग और कीट हमला कर सकते हैं जिनकी रोकथाम आवश्यक है। पाउडरी मिल्ड्यू एक फफूंद जनित रोग है जिससे पत्तियों पर सफेद पाउडर जैसा आवरण बन जाता है।
इसके रोकथाम के लिए सल्फर आधारित फफूंदनाशक का छिड़काव करें। वहीं फल मक्खी जैतून के फलों को नुकसान पहुंचाती है। इससे बचाव के लिए फेरोमोन ट्रैप का उपयोग करें और समय-समय पर कीटनाशकों का छिड़काव करें।
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जैतून का उपयोग व लाभ
जैतून के फलों का रंग हरे से बैंगनी होते ही उन्हें तोड़ लेना चाहिए। सही समय पर कटाई करने से फलों की गुणवत्ता और तेल की मात्रा अच्छी होती है। जैतून के फलों का उपयोग अचार, सलाद और पिज्जा में किया जाता है।
वहीं इससे बनने वाले तेल में एंटीऑक्सीडेंट, विटामिन E और अन्य पोषक तत्व होते हैं जो शरीर के लिए बहुत फायदेमंद होते हैं। यह कोलेस्ट्रॉल कम करने, रक्तचाप नियंत्रित करने और पाचन तंत्र सुधारने में मदद करता है।
इसके अलावा, जैतून का तेल बालों और त्वचा के लिए भी बहुत अच्छा होता है, जिससे इसे सौंदर्य प्रसाधनों में भी बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया जाता है। जैतून के पेड़ फल देने लायक तैयार होने के बाद हर साल प्रति हैक्टेयर 15 लाख तक की आमदनी हो सकती है।
FAQ
जैतून की खेती के लिए अच्छी जल निकासी वाली दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है।
जैतून के पौधों के लिए शुष्क व अर्ध-शुष्क जलवायु उपयुक्त मानी जाती है। यह गर्मियों में 20-30 डिग्री सेल्सियस और सर्दियों में 5-15 डिग्री सेल्सियस तापमान पर अच्छी तरह पनपता है।
जैतून में पाउडरी मिल्ड्यू व फल मक्खी का प्रकोप अधिकतर देखा जाता है।
राजस्थान भारत का पहला राज्य है जिसने बड़े पैमाने पर जैतून की खेती को अपनाया। 2007 में, राजस्थान सरकार ने इज़राइल की मदद से एक पायलट प्रोजेक्ट की शुरुआत की थी, जिसका उद्देश्य राज्य में जैतून की खेती को बढ़ावा देना था।
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