खरीफ फसलों की कटाई के साथ ही किसान रबी फसलों की तैयारी शुरू कर देते हैं। गेहूं की फसल रबी की प्रमुख फसलों से एक है, इसलिए किसान कुछ बातों का ध्यान रखकर अच्छा उत्पादन पा सकते हैं।
भारत ने पिछले चार दशकों में गेहूं उत्पादन में उपलब्धि हासिल की है। गेहूं का उत्पादन साल 1964-65 में जहां सिर्फ 12.26 मिलियन टन था, जो बढ़कर साल 2019-20 में 107.18 मिलियन टन के एक ऐतिहासिक उत्पादन शिखर पर पहुंच गया है। भारत की जनसंख्या को खाद्य एवं पोषण सुरक्षा प्रदान करने के लिए गेहूँ के उत्पादन व उत्पादकता में निरन्तर वृद्धि की आवश्यकता है।
एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2025 तक भारत की आबादी लगभग 1.4 बिलियन होगी और इसके लिए वर्ष 2025 तक गेहूं की अनुमानित मांग लगभग 117 मिलियन टन होगी। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए नई तकनीकियाँ विकसित करनी होगी। नई किस्मों का विकास तथा उनका उच्च उर्वरता की दशा में परीक्षण से अधिकतम उत्पादन क्षमता प्राप्त की जा सकती है।
उत्तरी गंगा-सिंधु के मैदानी क्षेत्र देश के सबसे उपजाऊ और गेहूं के सर्वाधिक उत्पादन वाले क्षेत्र हैं। इस क्षेत्र में गेहूं के मुख्य उत्पादक राज्य जैसे पंजाब, हरियाणा, दिल्ली, राजस्थान (कोटा व उदयपुर सम्भाग को छोड़कर) पश्चिमी उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड के तराई क्षेत्र, जम्मू कश्मीर के जम्मू व कठुआ जिले व हिमाचल प्रदेश का ऊना जिला व पोंटा घाटी शामिल हैं।
इस क्षेत्र में लगभग 12.33 मिलियन हैक्टेयर क्षेत्रफल पर गेहूं की खेती की जाती है और लगभग 57.83 मिलियन टन गेहूं का उत्पादन होता है। इस क्षेत्र में गेहूं की औसत उत्पादकता लगभग 44.50 कुंतल/हैक्टेयर है, जबकि किसानों के खेतों पर आयोजित गेहूं के अग्रिम पंक्ति प्रदर्शनों में गेहूं की अनुशंसित प्रौद्योगिकियों को अपनाकर 51.85 कुंतल/हैक्टेयर की उपज प्राप्त की जा सकता है।
पिछले कुछ वर्षों से इस क्षेत्र में गेहूं की उन्नत किस्में एचडी 3086 व एचडी 2967 की बुवाई व्यापक रूप से की जा रही है, लेकिन इन किस्मों के प्रतिस्थापन के लिए उच्च उत्पादन क्षमता और रोग प्रतिरोधी किस्में डीबीडब्ल्यू 187, डीबीडब्ल्यू 222 और एचडी 3226 आदि प्रजातियों को बड़े स्तर पर प्रचारित-प्रसारित किया गया है।
अधिक उत्पादन के लिए करें इन उन्नत प्रजातियों का चयन
गेहूं की खेती में किस्मों का चुनाव एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो यह निर्धारित करता है कि उपज कितनी होगी। हमेशा नई, रोगरोधी व उच्च उत्पादन क्षमता वाली किस्मों का चुनाव करना चाहिए। सिंचित व समय से बीजाई के लिए डीबीडब्ल्यू 303, डब्ल्यूएच 1270, पीबीडब्ल्यू 723 और सिंचित व देर से बुवाई के लिए डीबीडब्ल्यू 173, डीबीडब्ल्यू 71, पीबीडब्ल्यू 771, डब्ल्यूएच 1124, डीबीडब्ल्यू 90 व एचडी 3059 की बुवाई कर सकते हैं। जबकि अधिक देरी से बुवाई के लिए एचडी 3298 किस्म की पहचान की गई है। सीमित सिंचाई व समय से बुवाई के लिए डब्ल्यूएच 1142 किस्म को अपनाया जा सकता है।
बुवाई का समय, बीज दर व उर्वरक की सही मात्रा
गेहूं की बुवाई करने से 15-20 दिन पहले खेत तैयार करते समय 4-6 टन/एकड़ की दर से गोबर की खाद का प्रयोग करने से मृदा की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है। उत्तरी गंगा-सिंधु के मैदानी क्षेत्र के लिए गेहूं की बुवाई का समय, बीज दर और रासायनिक उर्वरकों की उपयोग करें ।
उच्च उर्वरता की दशा में पोषण प्रबंधन
हाल के वर्षों में गेहूं की नई किस्मों के उच्च उर्वरता की दशा में परीक्षण किए गए हैं, जिसमें गोबर की खाद की मात्रा 10-15 टन/हैक्टेयर और रसायनिक उर्वरकों की मात्रा को डेढ़ गुणा बढ़ाकर तथा बीजाई के समय को 25 अक्टूबर से 31 अक्टूबर के बीच रखकर परीक्षण किए गए, जिनके परिणाम काफी उत्साहवर्धक रहे हैं। इन परीक्षणों में गेहूं की बुजाई के 40 व 75 दिन बाद दो बार वृद्धि अवरोधक क्लोरमिक्वाट (0.2) $ प्रोपीकोनॉल (0.1) का छिड़काव भी किया गया है ताकि वानस्पतिक वृद्धि को रोका जा सके और ज्यादा फुटाव को बढ़ावा मिल सके। अधिक बढ़वार के कारण गेहूँ की फसल को गिरने से बचाया जा सके।
जीरो टिलेज व टर्बो हैप्पी सीडर से बुवाई धान-गेहूं
फसल पद्धति में जीरो टिलेज तकनीक से गेहूं की बुवाई एक कारगर और लाभदायक तकनीक है। इस तकनीक से धान की कटाई के बाद जमीन में संरक्षित नमी का उपयोग करते हुए जीरो टिल ड्रिल मशीन से गेहूं की बीजाई बिना जुताई के ही की जाती है। जहां पर धान की कटाई देरी से होती है वहां पर यह मशीन काफी कारगर सिद्ध हो रही है। जल भराव वाले क्षेत्रों में भी इस मशीन की काफी उपयोगिता है। यह धान के फसल अवशेष प्रबंधन की सबसे प्रभावी और दक्ष विधि है। इस विधि से गेहूं की बुवाई करने से पारंपरिक बुवाई की तुलना में बराबर या अधिक उपज मिलती है और फसल गिरती नही है। फसल अवशेषों को सतह पर रखने से पौधों के जड़ क्षेत्र में नमी अधिक समय तक संरक्षित रहती है, जिसके कारण तापमान में वृद्धि का प्रतिकूल प्रभाव उपज पर नही पड़ता है और खरपतवार भी कम होते हैं।
गेहूं की खेती में सिंचाई प्रबंधन है जरूरी
अधिक उपज के लिए गेहूं की फसल को पांच-छह सिंचाई की जरूरत होती है। पानी की उपलब्धता, मिट्टी के प्रकार और पौधों की आवश्यकता के हिसाब से सिंचाई करनी चाहिए। गेहूं की फसल के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं जैसे चंदेरी जड़े निकलना (21 दिन), पहली गांठ बनना (65 दिन) और दाना बनना (85 दिन) ऐसी हैं, जिन पर सिंचाई करना अतिआवश्यक है। यदि सिचाई के लिए जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो तो पहली सिंचाई 21 दिन पर इसके बाद 20 दिन के अंतराल पर अन्य पांच सिंचाई करें। नई सिंचाई तकनीकों जैसे फव्वारा विधि या टपका विधि भी गेहूं की खेती के लिए काफी उपयुक्त है। कम पानी क्षेत्रों में इनका प्रयोग बहुत पहले से होता आ रहा है। लेकिन जल की बाहुलता वाले क्षेत्रों में भी इन तकनीकों को अपनाकर जल का संचय किया जा सकता है और अच्छी उपज ली जा सकती है। सिंचाई की इन तकनीकों पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी के रूप में अनुदान भी दिया जा रहा है। किसान भाईयों को इन योजनाओं का लाभ लेकर सिंचाई जल प्रबंधन के राष्ट्रीय दायित्व का भी निर्वाहन करना चाहिए।
खरपतवार प्रबंधन
गेहूं की फसल में संकरी पत्ती (मंडूसी/कनकी/गुल्ली डंडा, जंगली जई, लोमड़ घास) वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए क्लोडिनाफॉप 15 डब्ल्यूपी 160 ग्राम या फिनोक्साडेन 5 ईसी 400 मिलीलीटर या फिनोक्साप्रॉप 10 ईसी 400 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर प्रयोग करें। यदि चौड़ी पत्ती (बथुआ, खरबाथु, जंगली पालक, मैना, मैथा, सोंचल/मालवा, मकोय, हिरनखुरी, कंडाई, कृष्णनील, प्याजी, चटरी-मटरी) वाले खरपतवारों की समस्या हो तो मेटसल्फ्यूरॉन 20 डब्ल्यूपी 8 ग्राम या कारफेन्ट्राजोन 40 डब्ल्यूडीजी 20 ग्राम या 2,4 डी 38 ईसी 500 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें। सभी खरपतवारनाशी/शाकनाशी का छिड़काव बीजाई के 30-35 दिन बाद 120-150 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लैट फैन नोजल से करें। मिश्रित खरपतवारों की समस्या होने पर संकरी पत्ती शाकनाशी के प्रयोग उपरान्त चौड़ी पत्ती शाकनाशी का छिड़काव करें। बहुशाकनाशी प्रतिरोधी कनकी के नियंत्रण के लिए पायरोक्सासल्फोन 85 डब्ल्यूडीजी 60 ग्राम/एकड़ को बीजाई के तुरन्त बाद प्रयोग करें।
रोग और कीट प्रबंधन
अनुमोदित नवीनतम रोग व कीट प्रतिरोधी प्रजातियों को ही उगाएं। नाइट्रोजन उर्वरक का संतुलित मात्रा में उपयोग करें।
बीज जनित संक्रमण के प्रबंधन के लिए प्रमाणित बीज का प्रयोग करें। बीजों को कार्बोक्सिन (75 डब्ल्यूपी) या कार्बेन्डाजीम (50 डब्ल्यूपी) से 2.5 ग्राम/किलोग्राम की दर से उपचारित करें।
पीला रतुआ रोग की पुष्टि होने पर प्राॅपीकोनाजोल (25 ईसी) या टेब्यूकोनाजोल (250 ईसी) नामक दवा का 0.1 प्रतिशत (1.0 मिली/लीटर) का घोल बनाकर छिड़काव करना चाहिए। एक एकड़ खेत मे 200 मिलीलीटर दवा को 200 लीटर पानी में घोलकर छिड़काव करें। रोग के प्रकोप और फैलाव को देखते हुए यदि आवश्यक हो तो 15-20 दिन के अंतराल पर दोबारा छिड़काव करें।
चूर्णिल आसिता रोग के लक्षण दिखाई दे तो उसके नियंत्रण के लिउ प्रोपीकोनाजोल (25 ईसी) नामक दवा की 0.1 प्रतिशत (1.0 मिली/लीटर) मात्रा का एक छिड़काव पौधों में बाली निकलते समय बीमारी से प्रभावित क्षेत्र में करना चाहिए। करनाल बंट प्रबंधन के लिए फसल में बाली निकलने के समय प्रोपीकोनाजोल (25 ईसी) नामक दवा की 0.1 प्रतिशत (1.0 मिली/लीटर) मात्रा का छिड़काव किया जा सकता है। माहू की संख्या का आर्थिक क्षति स्तर (ईटीएल 10-15 माहू प्रति शूट) को पार करने पर इमिडाक्लोप्रिड 200 एसएल (17.8ःडब्ल्यू/डब्ल्यू) का 40 मिलीलीटर/एकड़ की दर से छिड़काव करें।
कटाई और भंडारण का सही तरीका
जब गेहूं के दाने पककर सख्त हो जाएं और नमी की मात्रा 20 प्रतिशत से कम हो जाए तो कम्बाइन हार्वेस्टर से कटाई, मढ़ाई एवं ओसाई एक साथ की जा सकती है। अत्यधिक उपज देने वाली नवीनतम् प्रजातियों के प्रयोग से लगभग 70-80 कुंतल/हैक्टर उपज प्राप्त की जा सकती है। भंडारण से पहले दानों को अच्छी तरह से सुखा लें ताकि औसतन नमी 10-12 प्रतिशत के सुरक्षित स्तर पर आ जाए। टूटे एवं कटे-फटे दानों को अलग कर देने से भी मध्यम् कीटों के नुकसान से बचा जा सकता है। अनाज भंडारण के लिए जी आई शीट के बने बिन्स (साइलो एवं कोठिला) का प्रयोग करना चाहिए तथा कीड़ों से बचाव के लिए लगभग 10 कुंतल अनाज में एक टिकिया एल्यूमिनियम फाॅस्फाईड की रखें।
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