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कुंदरू की खेती के लिए कृषि वैज्ञानिक सुझाते हैं ये तरीका! आप भी जानकार उठाएँ लाभ!

कुंदरू की खेती
Written by Gramik

प्रिय पाठकों, ग्रामिक के इस ब्लॉग सेक्शन में आपका स्वागत है!

बरसात का मौसम आ गया है और किसान इस समय खरीफ की फसलों की खेती में व्यस्त हैं। ऐसे में अगर आप सब्जी की खेती करना चाहते हैं तो वे कुंदरू की खेती कर सकते हैं। कुंदरू की खेती से किसानों को काफी मुनाफा हो सकता है, क्योंकि ये एक मौसमी सब्जी है जिसकी डिमांड बाजार में खूब रहती है। इस ब्लॉग में हम कुंदरू की खेती की विधिऔर इसके सही प्रबंधन के बारे में विस्तार से जानेंगे।

कुंदरू की खेती

कुंदरू की वैज्ञानिक खेती

कुंदरू का पौधा झाड़ीनुमा होता है और यह दिखने में परवल के जैसा होता है। इसके फूल सफेद रंग के होते हैं और इसके फल छोटे और हरे होते हैं। कुंदरू का वैज्ञानिक नाम *Coccinia grandis* है और इसे अंग्रेजी में Ivy Gourd कहा जाता है। खेती से मुनाफा लेने के लिये नई-नई उन्नत कृषि तकनीकों और विधियों का इस्तेमाल किया जा रहा है। देशभर के किसान इन विधियों को अपनाकर फल और सब्जियों की वैज्ञानिक खेती कर रहे हैं। खासकर उत्तर प्रदेश की बात करें तो यह राज्य बागवानी फसलों की खेती का गढ़ बनता जा रहा है। यहां किसान मचान विधि से सब्जियां उगाकर अच्छी आमदनी कमा रहे हैं। 

मचान विधि से कुंदरू की खेती

कुंदरू एक बहुवर्षीय फसल है, जिसकी एक बार बुवाई करने के बाद कई सालों तक इससे मोटा उत्पादन मिलता रहता है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यही है कि एक बार तुड़ाई के बाद वापस 10 से 15 दिन में इसके फल दोबारा उगने लगते हैं। इसकी उत्पादकता और उत्पादन बढ़ाने के लिये मचान विधि से कुंदरू की खेती करने की सलाह दी जाती है।

कुंदरू की खेती

मचान विधि के फायदे

1. बेलों का बेहतर विकास: मचान विधि में कुंदरू की बेलों को लोहे की जालियों, नेट या ढांचा बनाकर उस पर फैलाया जाता है, जिससे बेलों का विकास तेजी से होता है।

2. कीट और रोग नियंत्रण: इस विधि से फसल में कीड़े और बीमारियों की संभावना कम हो जाती है।

3. सूर्य के प्रकाश का प्रभाव: बेलों को फैलाने से पौधों को पर्याप्त सूर्य का प्रकाश मिलता है, जिससे उनकी वृद्धि में सुधार होता है।

पानी और संसाधनों की बचत

मचान विधि के साथ ड्रिप इरिगेशन तकनीक का उपयोग करके पानी की बचत की जा सकती है। टपक सिंचाई विधि से पानी सीधा पौधों की जड़ों तक पहुंचता है, जिससे पौधे गलते नहीं और रोगों का खतरा भी कम हो जाता है। यह सिंचाई का किफायती और टिकाऊ तरीका है।

बीज और पौध प्रबंधन

इस विधि में बीजों को नर्सरी में लगाकर पौधे तैयार किये जाते हैं। बाद में मेड़ या बैड़ बनाकर पौधों की रोपाई की जाती है, जिससे खरपतवारों की संभावना नहीं रहती। इस प्रकार खेती में लागत कम आती है और किसानों का मुनाफा ज्यादा होता है।

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मिट्टी, खाद प्रबंधन व सिंचाई 

वैसे तो कुंदरू की खेती सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन जीवांश और कार्बनिक पदार्थों से भरपूर बलुई दोमट मिट्टी ज्यादा उपजाऊ मानी जाती है। नर्सरी और रोपाई से पहले खेतों को गहरी जुताई करके तैयार किया जाता है और कई टन गोबर की खाद या वर्मी कंपोस्ट खाद मिलाई जाती है। अच्छी पैदावार और मिट्टी में नमी कायम रखने के लिये सप्ताह में एक बार सिंचाई का काम किया जाता है और पूरा खेत हरियाली से भर जाता है। सिंचाई का ध्यान रखना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि पौधों की वृद्धि और उत्पादन पानी की उपलब्धता पर निर्भर करता है।

सह-फसल खेती

कुंदरू की मुख्य फसल के साथ हल्दी, धनिया और अदरक की सह-फसल खेती करके भी अतिरिक्त आमदनी अर्जित की जा सकती है। इससे खेत का उपयोग बेहतर तरीके से हो सकता है और किसानों को कई स्रोतों से मुनाफा मिल सकता है।

FAQ

कुंदरू की खेती कहां की जा सकती है?

कुंदरू की खेती लगभग सभी प्रकार की मिट्टी में की जा सकती है, लेकिन बलुई दोमट मिट्टी सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसकी खेती उत्तर प्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, और दक्षिणी राज्यों में अधिक होती है।

कुंदरू की खेती के लिए सही समय कौन सा है?

कुंदरू की खेती के लिए बरसात का मौसम सबसे अच्छा माना जाता है। इसके पौधे को जुलाई से अगस्त के बीच रोपा जा सकता है।

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