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कद्दूवर्गीय फसलों में तोरई की खेती को लाभकारी खेती में गिना जाता है। इस खेती की सबसे बड़ी खासियत ये है कि इसमें कम लागत व मामूली देखरेख से ही अच्छी उपज मिलती है, और बाजार भाव अच्छे मिल जाते हैं। इसे साल में दो बार यानि जायद और खरीफ सीजन में लगाया जा सकता है।
आपको बता दें कि कच्ची तोरई की सब्जी बनाई जाती है, जो स्वादिष्ट होने के साथ ही सेहत के लिए भी काफी लाभकारी होती है। वहीं इसके सूखे बीजों से तेल निकाला जाता है।
आज हम ग्रामिक के इस ब्लॉग के माध्यम से किसानों को कम खर्च में तोरई की उन्नत खेती करने के 8 टिप्स दे रहे हैं, जिन्हें अपनाकर आप इस फसल से अच्छी उपज ले सकते हैं।
1. तोरई की खेती किस विधि से करें
तोरई की खेती के लिए नर्सरी पॉली हाउस में इसकी नर्सरी तैयार की जा सकती है। तोरई की बुवाई के लिए नाली विधि सबसे उपयुक्त मानी जाती है। इसमें पहले तोरई की पौध तैयार की जाती है और इसके बाद इसे मुख्य खेत में रोपत किया जाता है।
2. तोरई की खेती के लिए उपयुक्त मिट्टी
तोरई की अच्छी फसल के लिए कार्बनिक पदार्थो से युक्त उपजाऊ मध्यम और भारी मिट्टी अच्छी मानी जाती है जिसमें जल निकास की अच्छी व्यवस्था हो। मिट्टी का पीएच मान करीब 6.5 से 7.5 होना चाहिए। इसकी खेती में दोमट मिट्टी में नहीं करनी चाहिए।
3.तोरई की खेती के लिए उन्नत किस्में
तोरई के बीज आइरिस, अल्पाइन, और रेमिक जैसी कई उन्नत किस्में ग्रामिक पर उपपब्ध हैं, जिन्हें आप इस लिंक पर क्लिक करके ऑर्डर कर सकते हैं। तोरई के बीज की रोपाई के बाद 70 से 80 दिन में इसमें फल लगने लगते हैं। यह किस्में 100 से 150 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से पैदावार देती हैं।
4. तोरई की रोपाई का सही तरीका
तोरई की बुआई के समय तैयार की गई क्यारियों के बीच 3 से 4 मीटर व पौधे से पौधे के बीच 80 सेंटीमीटर की दूरी रखनी चाहिए। नालियां 50 सेंटीमीटर चौड़ी व 35 से 45 सेंटीमीटर गहरी होनी चाहिए।
5. तोरई की खेती के लिए बीजोपचार जरूरी
तोरई फसल को रोगों से बचाने और अच्छा उत्पादन पाने के लिए लिए इसके बीजों को बुवाई से पहले थाइरम की 2 ग्राम मात्रा से प्रति किलोग्राम बीज को उपचारित कर लें।
6. इस उपाय से जल्दी अंकुरित होंगे बीज
तोरई की खेती में बीजों के जल्दी अंकुरित होने के लिए उन्हें बुवाई से पहले एक दिन के लिए पानी में भिगो कर रखें, इसके बाद बीज को बोरी या टाट में लपेट कर किसी गर्म जगह पर रखें, इससे बुवाई के बाद बीज जल्दी अंकुरित होंगे।
7. तोरई की खेती में खाद एवं उर्वरक
तोरई की खेती के लिए खेत की तैयारी के समय मिट्टी में प्रति हेक्टेयर की दर से 15-20 टन तक गोबर की खाद मिलाएं। तोरई को 40 से 60 किलोग्राम नाइट्रोजन, 30-40 किलोग्राम फास्फोरस और 40 किलोग्राम प्रति हेक्टेयर की आवश्यकता होती है।
नाइट्रोजन की आधी मात्रा, व फास्फोरस व पोटाश की पूरी मात्रा बुवाई से पहले मिट्टी में मिला दें, और नाइट्रोजन की बची हुई शेष मात्रा 45 दिन बाद पौधों की जड़ों के पास डालकर मिट्टी चढ़ा दें।
8. तोरई की खेती में इन कीटों व रोगों का हो सकता है खतरा
तोरई की फसल में पत्तों के ऊपरी भाग पर धब्बा रोग का प्रकोप अक्सर देखा जाता है। इस रोग के कारण पत्तों की ऊपरी सतह पर सफेद रंग के धब्बे नज़र आते हैं, जिसके कारण पत्ते नष्ट हो जाते हैं। इस रोग से बचाव के लिए एम 45, 2 ग्राम को 1 लीटर पानी में मिलाकर डालें। इसके अलावा इस रोग का उपचार क्लोरोथालोनिल, बिनोमाइल या डिनोकैप का स्प्रे करके भी किया जा सकता है।
चेपा और थ्रिप्स कीट तोरई के पत्तों का रस चूसते हैं, जिससे पत्ते पीले होकर गिरने लगते हैं। थ्रिप्स का हमला होने से पत्ते मुड़ जाते हैं और कप के आकर में आ जाते हैं या ऊपर की तरफ से मुड़ जाते हैं। यदि फसल में इनका हमला दिखे तो थाइमैथोक्सम 5 ग्राम को 15 लीटर पानी में मिलाकर फसल पर छिड़काव करें।
FAQs
तोरई की फसल 70-80 दिनों में फल देना शुरु कर देती है। इस बीच समय पर सिंचाई, निराई-गुड़ाई और पोषण प्रबंधन का ध्यान रखना बेहद जरूरी है।
मैदानी भागों में तोरई की खेती का सही समय फरवरी-मार्च व जून-जुलाई हैं।
फरवरी महीने में बोई जाने वाली फसलों में राजमा, शिमला मिर्च, खीरा-ककड़ी, लोबिया, करेला, लौकी, तुरई, पेठा, खरबूजा, तरबूज, पालक, गन्ना, बैंगन, भिण्डी, अरबी, ग्वार आदि शामिल हैं।
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