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बढ़ती हुई जनसंख्या के साथ भोजन की आपूर्ति के लिए ज़्यादा से ज़्यादा खाद्य उत्पादन प्राप्त करने की होड़ में तरह-तरह की रासायनिक खादों व कीटनाशकों का प्रयोग प्रकृति के जैविक और अजैविक पदार्थो के बीच आदान-प्रदान के चक्र को प्रभावित करता है, जिससे भूमि की उर्वरा शक्ति खराब हो जाती है, साथ ही वातावरण प्रदूषित होता है, जिससे हमारे स्वास्थ्य में भी गिरावट आती है।
जैविक खेती के लाभ
भूमि की उपजाऊ क्षमता में वृद्धि:
बेहतर फसल उगाने के लिए मिट्टी की उर्वरता बहुत आवश्यक है और जैविक खेती के ज़रिये इसकी उर्वरता बनी रहती है। जैविक खेती करने से मिट्टी में पोटेशियम, फास्फोरस आदि पर्याप्त मात्रा में बने रहते हैं, जो भूमि के लिए बेहद लाभदायक हैं।
यदि हम मिट्टी की दृष्टि से देखें तो जैविक खाद के उपयोग से भूमि की गुणवत्ता में सुधार आता है, भूमि की जल संचयन की क्षमता बढ़ती है और भूमि बंज़र होने से बची रहती है।
गुणवत्तापूर्ण रसायनमुक्त उपज:
जैविक खेती से उपजे फल, सब्जियां और अन्य खाद्य पदार्थ रसायनमुक्त होते हैं क्योंकि इसे बिना किसी ज़हरीले कीटनाशक के प्रयोग से उगाया जाता है।
वातावरण के लिए उपयोगी:
कभी-कभी, फसल में छिड़काव किये गये कीटनाशक हवा में घुल सकते हैं, जो वातावरण के लिए बेहद हानिकारक होता है। जैविक खेती वातावरण के लिए भी अच्छी होती है। साथ ही जैविक विधि से उगाई गई फसलों का चारा पशुओं के स्वास्थ्य के लिए भी लाभदायक होता है।
किसानों को अधिक आय:
जैविक खेती से हुई फसलों की मांग व कीमत दोनों बाजार में अधिक होती है, जिससे किसानों को अच्छा मुनाफा मिलता है। वर्षा आधारित क्षेत्रों में जैविक खेती अधिक लाभदायक है।
जैविक खेती से होने वाली हानि
जैविक खेती संतुलित, प्राकृतिक और वातावरण संरक्षण के दृष्टिकोण से बेहतर विकल्प होता है, हालांकि खेती की इस विधि की कुछ हानियां हैं।
कम उत्पादकता:
जैविक खेती में उत्पादकता कम हो सकती है जो पूर्ण रूप से स्थान और वातावरण पर निर्भर होती है।
बढ़ती लागत:
जैविक खेती में खाद और कीटनाशक के उपयोग के बिना उगाए गए उत्पादों की खरीद की लागत बढ़ सकती है।
जीवाणु जनित बीमारियों का सामना:
जैविक खेती में कीटनाशक के अभाव में फसल में कई जीवाणु जनित रोगों का खतरा बढ़ जाता है।
जैविक खेती के तरीके
जैविक खाद उपयोग:
जैविक खाद जैविक संसाधनों से बनाई जाती है, जैसे कि फसल के अपशिष्ट, वर्मीकंपोस्ट, आदि। इसे मिट्टी में मिलाकर खेती की उपज की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है।
जैविक खाद उपयोग:
मृदा में जैविक पदार्थों कि पर्याप्त उपलब्धता के लिए जैविक खादों का प्रयोग अनिवार्य है। जैविक खाद जैविक संसाधनों से बनाई जाती है, जैसे कि फसल के अपशिष्ट, वर्मीकंपोस्ट, आदि। इसे मिट्टी में मिलाकर खेती की उपज की गुणवत्ता बढ़ाई जा सकती है।
आपको बता दें कि एक टन गोबर की खाद के प्रयोग से 5-8 कि.ग्रा. नत्रजन, 3.0-35 कि. ग्रा., फास्फोरस एवं 5-6 कि. ग्रा., पोटाश मिलता है। शहरी कम्पोस्ट में औसत पोषक तत्वों की मात्रा थोड़ी अधिक होती है। एक टन करंज, नीम, अरंडी, मूंगफली, नारियल, सरगुजा, तिल इत्यादि की खली के प्रयोग से 30-70 कि, गर, नत्रजन, 8-2 0 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 10-20 कि. ग्रा. पोटाश मिलता है।
दलहनी फसलों का प्रयोग
दलहनी फसलों को सब्जियों के साथ सम्मिलित किया जा सकता है। मुख्यतः दलहनी फसलों को सब्जियों के साथ अन्तःफसल के रूप में या हरी खाद के रूप में उगाया जा सकता है। दलहनी फसलों को सम्मिलित करने से सब्जियों की पैदावार में उत्साहजनक वृद्धि तथा उपज में स्थिरता देखी गई है।
दलहनी फसलें खेत में उगाने से इनके द्वारा किये जाते वाले वायुमंडलीय नत्रजन यौगिकीकरण का लाभ मिलता है। लोबिया, मटर, सोयाबीन, मूंगफली, बीन इत्यादि दलहनी फसलों से 40-90 कि. ग्रा./हेक्टेयर की दर से यौगिकीकृत नत्रजन का लाभ मिलता है।
हरी खाद का प्रयोग
हरी खाद के प्रयोग से जैविक पदार्थ के अतिरिक्त मृदा में नत्रजन की मात्रा बढ़ जाती है। इसकी अतिरिक्त जीव रसायनिक क्रिया में तीव्रता आती है तथा पोषक तत्वों का संरक्षण व उपलब्धता बढ़ती अहि।
बरसात में उगाये जाने वाले हरी खाद में ढैंचा (सेसवानिया एक्युलियाटा ) एवं सनई (क्रोटोलेरिया जन्सिया) तथा शुष्क मौसम में उगायी जाने वाली हरी खादों में सेंजी (मेलिलोटस अल्वा) एवं बरसीम (ट्राईफोलियम अलेक्सनड्रीनम) प्रमुख है।
हरी खाद की जुताई उसी समय करना चाहिए जब फसल में काफी पत्तियाँ आ जाए परन्तु वे कड़ी न हो जिससे पलटाई के बाद आसानी से सड़ जाए।
साधारणतः बुआई से 45-50 दिन बाद हरी खाद पलट कर जुताई करना चाहिए। इसके अतिरिक्त वनखेती तंत्रानुसार गरिपुष्प (ग्लिरिसिडिआ मैकूलाटा) एवं सुबबूल (ल्युकायना लुकोसेफाला) लगाकर उसके पत्तों का हरी खाद के रूप में प्रयोग किया जा सकता है।
ग्लिरिसिडिआ की एक टन हरी पत्तियों में 30-40 कि. ग्रा. नत्रजन, 3.0-32 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 15 -25 कि. ग्रा. पोटाश होता है। एक टन सुबबूल कि पत्तियों के प्रयोग से 30-35 कि. ग्रा. नत्रजन, 2.5 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 14-15 कि. ग्रा. पोटाश मिलते हैं।
फसल अवशेष
धान, मूंगफली कि भूसी तथा ज्वार एवं मडुआ के तनों आदि के प्रयोग से जमीन में जैविक कार्बन में वृद्धि के साथ-साथ मृदा की भौतिकी संरचना भी उत्कृष्ट हो जाती है। फसल अवशेष के एक टन में ३-15 कि. ग्रा. नत्रजन, 2-7 कि. ग्रा. फास्फोरस एवं 3-20 कि. ग्रा. पोटाश होता है।
जीवाणु खादों का प्रयोग
कुछ जीवाणु पौधों की जड़ों में या उसके आसपास रहकर वायुमंडलीय नत्रजन का यौगिकीकरण करते हैं या भूमि में उपलब्ध अघुलनशील फास्फोरस को पौधों के लिए उपयोगी बनाते हैं इस प्राकर पौधों की वृद्धि एवं उपज बढ़ाने में ये सक्रिय योगदान देने के साथ-साथ की उर्वरा शक्ति भी बनाये रखते हैं। इन्हें जीवाणु खाद के रूप में फसलों में दिया जाता है।
नत्रजन उपलब्ध कराने वाली जीवाणु खादों में उपस्थित जीवाणु वातावरण में उपलब्ध कराते हैं। दलहनीजातीय सब्जियों जैसे – लोबिया, मटर, बीन आदि में नत्रजन की उपलब्धता को बढ़ाने के लिए राइजोबियम जीवाणु खाद प्रयोग करनी चाहिए। अन्य सब्जी फसलों में नत्रजन की उपलब्धता बढ़ाने वाली जीवाणु खाद एजोटोबैक्टर तथा एजोस्प्रिल्लियम हैं।
फास्फोरस उपलब्ध कराने वाली जीवाणु खादों में ऐसे जीवाणु होते हैं जो भूमि में उपस्थित अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील रूप में बदल दी हैं जिससे पौधे आसानी से इसे अपने भोजन के रूप में प्रयोग कर पाते हैं। अघुलनशील फास्फोरस को घुलनशील बनाने वाले जीवाणु खाद फास्फोबैक्ट्रिन तथा फास्फाटिका नाम से बाजार में उपलब्ध है।
विभिन्न जीवाणु खादों का प्रयोग करने कि विधियाँ
जीवाणु खादों से बीज/कंद को उपचारित करना।
बीजोपचार विधि से 250 ग्रा. गुड़ एक लीटर पानी में उबाल कर ठंडा करने के बाद उसमें 500 ग्रा, जीवाणु खाद तथा एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त बीज को अच्छी तरह मिलाकर आधा घंटा तक छायादार स्थान में सुखाने के बाद इस उपचारित बीज की बुआई करनी चाहिए।
जीवाणु कल्चर को धूप से बचाना आवश्यक होता है। कंद उपचार के लिए 2 कि. ग्रा. कल्चर 5 लीटर पानी में अच्छी तरह मिलकर एक हेक्टेयर के लिए पर्याप्त कंदों को इसमें उपचारित करके आधा घंटा तक छायादार स्थान में सुखाने के बाद बुआई करनी चाहिए।
मिट्टी उपचार के लिए, 2 कि. ग्रा. कल्चर, 25 कि. ग्रा. गोबर की सड़ी खाद एवं 25 कि. ग्रा. मिट्टी के साथ अच्छी तरह मिलाकर भींगे हुए जूट के बोर से ढककर छायादार स्थान पर रखें तथा 5 दिन के अंतराल पर दो बार पलटें।
15 दिन के बाद उपरोक्त मिश्रण को एक हेक्टेयर में समान रूप से बिखेर देना चाहिए। इस प्रक्रिया को चार्जिंग कहा जाता है। जीवाणु खादों का प्रयोग करते समय उर्वरकों तथा रसायनिक दवाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए।
केंचुआ खाद का प्रयोग
यह एक उच्च कोटि कि संतुलित जैविक खाद है जो एसिनिया फोटिडा तथा युड्रीलस युजनी नामक केंचुओं द्वारा तैयार किया जाता है। इसमें नत्रजन (8.0-1.2%), फास्फोरस (0.7-1.2%) तथा पोटाश (1.0-1.5%) के अतिरिक्त सूक्ष्म पोषक तत्व एवं एंजाइम उपलब्ध होते हैं जो पौधों के लिए आवश्यक होते हैं। यह जमीन कि उर्वरता तथा मिट्टी कि जलधारण क्षमता को भी बढ़ाती है।
बुआई/रोपाई से पहले 20-30 क्विंटल प्रति हेक्टेयर की दर से केंचुआ खाद जमीन को मिलानी चाहिए। केंचुआ खाद के प्रयोग के बाद भूमि की सतह को पुआल, सुखी पत्तियां या कूड़ा-करकट बिछाकर ढँक (मल्चिंग) देने से इसका प्रयोग प्रभाव अच्छा होता है। इसकाउपयोग करते समय उर्वरक तथा रसायनिक दवाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए।
कीट एवं बीमारियों के जैविक नियंत्रण कि विधियाँ
रसायनिक दवाओं द्वारा कीट एवं बीमारियों का प्रबन्धन एक सरल एवं प्रभावशाली तरीका है। परन्तु रसायनिक दवाओं का अत्यधिक उपयोग, प्रबन्धन के साथ-साथ कृषि व्यवस्था के लिए कई नई समस्याओं जैसे कीट में कीटनाशक की प्रतिरोधक क्षमता का पैदा होना, वातावरण एवं भूमिगत-जल प्रदुषण, कृषि उत्पाद में रसायनिक दवा के अवशेष की मात्रा का मानव स्वास्थ्य में कुप्रभाव, फसल के कीटों के प्राकृतिक शत्रुओं की संख्या का ह्रास, फसलों के भण्डारण क्षमता में ह्रास प्रमुख है।
जैविक कीटनाशक:
जैविक कीटनाशक प्राकृतिक संसाधनों से बने होते हैं और नकारात्मक प्रभावों के बिना कीटों को नष्ट करने में मदद करते हैं। इनमें नीम पत्तियां, प्याज और लहसुन का पेस्ट, और जीवाणुशक्ति के उपयोग की जाती है।
FAQs
जैविक खेती कृषि की वह विधि है जो उर्वरकों एवं कीटनाशकों के बिना प्रयोग या न्यूनतम प्रयोग पर आधारित है।
ब्रिटिश वनस्पति शास्त्री सर अल्बर्ट हॉवर्ड को आधुनिक जैविक कृषि का जनक कहा जाता है।
सिक्कम भारत का पहला ऐसा राज्य है जहां पूरी तरह जैविक कृषि की जाती है।
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